Tuesday, March 26, 2019

Zidd

ज़िद

दोनों अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े हुए है
वोह बुढ़िया कभी उठकर अंदर नहीं जाती
सुबह से लेकर शाम उसी मंदिर की सीढ़ियों पर ही है बिताती
वोह पत्थर का खुदा कभी उठकर बाहर नहीं आता
ना कभी उसका हाल पूछता
ना कभी उसको समझाता।

ना जाने यह कैसी ज़िद है?

चौखट पर कोई बैठा है
और
बोलचाल भी नहीं है।

रूठी हुई, मुँह फुलाएं हुए
नाराज़ सी, खामोश सी, उदास सी
उस बुढ़िया को जब मैं देखता हूँ
यह समझ नहीं पाता 
कि जिस खुदा ने दया, उपकार, झुकना सिखाया
वोह खुदा, खुद क्यों नहीं ज़िद छोड़कर मंदिर के बाहर आ जाता
उस बुढ़िया को अपने हाथों से उठाकर,
कंधों के सहारे,
मंदिर के अंदर ले जाता
अपने पास बिठाता 
उसका हाल पूछता
उसको ज़िन्दगी जीने का सलीक़ा सिखाता। 

रोमिल

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